9/15/2007

कविता संग्रह से

रात का एक पहर अभी शेष है


आँख खुलते ही
पता चल गया था कि
दुनिया वैसी नहीं रह गई है
जैसा छोड़ गया था, सिराहने,
चशमें के साथ,
सोने से पहले।
अभी तक गनीमत थी यही कि नौटंकियाँ
होती रहती थीं ज़मीन पर ही
हैरान हूँ देख कर कि दौड़ रही थी
सुनिता व्हिलियम्स
ट्रेड़-मिल पर, ‘बोस्टन मेराथान’
स्पेस स्टेशन में
और मैं देख पा रहा था उसे
यहाँ पलंग से
लेटे लेटे ।
घबड़ा जाता हूँ, कि यह
हो क्या गया ?
कि ‘मेटामार्फ़सिस’ हो गई है मेरी,
बदल गया हूँ मैं
फिट कर गया है कोई
मेरी आँखों में
रेटिना की जगह
एक शक्तिशाली, हज़ार मेगापिक्सेल, ‘इमेज़ सेंसर’ ।
देख सकता हूँ मैं
आदमियों, दीवारों के आर पार,
हद और सरहदों के आर-पार,
अंतरिक्ष में, पाताल में,
देश काल से भी आगे,
या पीछे,
और वो भी बिना किसी
चश्में के ।

ओफ़ क्या मैं संजय हो गया हूँ?
नज़र उठा के देखता हूँ,
आकाश पर बिछा हुआ है जाल,
तेजी से घूमते हुए
तरह तरह के सेटेलेएईटों का,
बंधी हुई है दुनिया जिसमें ।
दौड़े जा रहे हैं सभी
देश, एक दूसरे के बेडरूम में झांकते, फोटो लेते
तुरंत चादर खींच कर
ढक देता हूँ, हड़बड़ा कर
साथ, बेखबर सोई
घर के कामों से त्रस्त,
पत्नी की उघड़ी छातियाँ, जांघें।
कुनमुनाती, करवट बदलती है, वह
मुँह से निकल जाता है अनायास, मेरे
‘संजय उवाच ----
सो लो और थोड़ी देर।‘
अरे यह क्या ?
क्यों बोल गया यह, मैं…
‘सजय उवाच’?
चकित हूँ ।
ओफ़,
घबड़ा कर बालकनी में आ जाता हूँ
सूरज की लाली दिखायी देने लगी है, पूरब में
जापान कब का उठ गया है
उसके हाथ पीछे बंधे हुए हैं
और वह सज़दे में है, खुश
हिरोशिमा में भस्म होते बूढ़े, बच्चे, जवान, औरतें दिखाई देने लगे हैं
वाष्पीक्रत हुए आदमी का अक्स दीवार पर दिखाई दे रहा है
निकला था जो नुक्कड़ से रोटी लाने ।

चीन उठा है अभी, पास में ही, बिस्तर से
आई0 सी0 बी0 एम0 सारी तनी हुईं थीं
अमरीका-रूस के ठिकानों पर ।
उगा रहे थे बुद्धिजीवी खेतों में,
लांग मार्च पर निकले सैनिकों के लिये भोजन,
खुद खेत हो कर ।

नापाम बम गिर रहें हैं वियतनाम में
भाग रही है एक बच्ची नंग-धड़ंग सड़क पर
जलती पीठ लिये ।
देखता हूँ
घूम रही है इस वक्त वही किम फुक,
वाशिंग्टन मेमोरिअल के आस पास,
शाम के समय, मोमबत्ती जलाते,
अपने बच्चों का हाथ पकड़े।
दौड़ते देख रहा हूँ बहुत सी नंगी, जलतीं किम फुक
और भी बहुत सी जगहों में इसी समय
अफ़गानिस्तान में, फ़िलिस्तीन में, ईराक़ में, बोस्निया में,
चेच्निया में, काश्मीर में, मणिपुर में, लंका में………

देख रहा हूँ
अंग सन सू की को
हलके कदमों से
नाशते की टेबिल पर आते
अपने मौन से गुफ़्तगूं करने।
उन सब को सूंघ गया है सांप
जो लाये थे शान्ति पुरस्कार उसे देने
और दे गये कब्रिस्तान का सन्नाटा।

अब मुझे दीख्नने लगे हैं
भाप से उठते हुए एटमी बादल
दुनिया में चारो ओर।

हो गई है इस समय सुबह दिल्ली में,
जिसका कि मैं चश्मदीद गवाह हूँ
रावी के तट पर
जहाँ से गुजरते देखता हूँ
लाशों से लदी बैलगाड़ियाँ लाहौर और अम्रतसर की तरफ़
और यकीन मानिये,
माउंट्बेटन खड़ा है सिर्फ़ अपने तमगों को पहने
राजभवन की सीढियों पर ।
इंडिया गेट पर देख रहा हूँ
जेट्टी पर लगते ज़हाज़,
लद रहे हैं स्वतंत्र राष्ट्र के गुलाम,
बाहर टाई शर्ट पेंट पहने,
अंदर धोती कुरता और तिलक,
शस्त्रों, शास्त्रों से लेस,
हेड्फ़ोन कानों में, मुँह के आगे माइक, आँखें स्क्रीन पर
स्क्रीन सेवर पर माखन चोर, मोर मुकुट सुसज्जित,
आवाज़ अमरीकन अंग्रेज़ी ।
वाल स्ट्रीट पर लगती है गुलामों की बोली
इस समय रात है वहाँ
और सुबह होते ही खड़े होंगे,
काल सेंटर, बदन उघेड़े, ग्राहक के इंतज़ार में।

अबु घरेब के सामने खड़ी रहेगी
‘स्टेच्यू आफ़ लिबर्टी’, हाथी के दाँत की तरह्।
कुरुक्षेत्र मे खड़ी हैं सेनाएं,
आमने सामने
चल रहा है सीरियल,
कौरवों और पांड़वों ने बदल लिये हैं रोल
अपने-अपने
और युद्ध में हैं अश्वत्थामा,
हाथी ही हाथी,
चारों ओर ।
बैठे है सारे ध्रतराष्ट्र
गोल मेज़ के चारों ओर
अपने अपने स्वार्थों से बधे,
पोल रेटिंग से बंधे
संयुक्त राष्ट्र में ।
घबराया मैं, संजय
बोलने के लिये आतुर, आँखों देखा,
अपने रोल से बढ़ कर
आगाह करने को तत्पर
कैसे छोड़ दिया सारे ध्रतराष्ट्रों ने, मुझे ?
चीखता हूँ जोर से
‘अरे ओ ध्रतराष्ट्रों सीखो अपनी विरासत से
क्यों ले जा रहे हो रसातल में
धरती……’
……कि दूर से आती सायरन की आवाज़ें सुनाई देने लगती हैं
रूक जाती हैं घर के ठीक सामने
सायरनी बख्तरबंद गाड़ियाँ,
दनदनाते,
मेरीन्स के बूट सीढियों पर……
जोर की लात दरवाजे प……
और कई नलियाँ, बंदूक की झाँक रहीं थीं
मेरे ज़हन में।

बताया गया मुझे पढ कर चार्ज-शीट…
कि
कह रहा था हर वाक्य के आगे, मैं
‘संजय उवाच—‘,
बाल्कनी में खड़े हो ।
कि अमरीकन सेटेलाईट से सुन लिया था
बुश ने
जो कुछ सोच रहा था में,
कि कर दिया था फ़ोन उसने बाजपेयी जी को,
कि गिरफ़्तार करो इस शक्स को,
कि हो सकता है आगे यह अल कायदा का शातिर
आतकी या हमास का,
कि हो सकता है दुनिया की शांन्ति के लिये खतरा।

कहता रह गया मैं
कि हूँ एक अदना सा सरकारी मुलाज़िम
जिसके होती नहीं कोई जात-पात, लिंग
हैसियत,
न घर में न बाहर ।
एक ही बीमारी है, बस
सुरती के साथ, सोचने की ।
बिल्कुल खतरनाक नहीं।
सुना उनने न एक मेरी, ले गये
रोती चिल्लाती, बिलखती पत्नी को ढकेल परे
भागलपुर में,
चाकुओं से निकाल दी गई थीं, मेरी आँखें।

नहीं है मेरा तकिया कलाम अब
‘संजय उवाच’
और मैं हूँ यहाँ,
सेलुलर जेल में।
बढ़ गई है ड़ाढ़ी
हाथ पैरों में हैं बेड़ियाँ
और रख गया है संतरी
जंगलों के बीच से
ज़हर का प्याला, और
रात का एक पहर अभी शेष है।

**************
जिंदगी, पंद्रह बाई पचास


जिंदगी हो गई है ‘रो-हाऊस’ सी,
पंद्रह बाई पचास पर बने,
तीन तरफ़ दीवारों से घिरे,
मकान की तरह,
बिल्डर कहते हैं, जिसे
वास्तु-अनुरूप आलीशान बँगला।

अंदर हैं, क्रमवार…
ड्राईंग रूम,
जिसमें उठता बैठता, पढ़ता सोता है
लड़का,
दरवाज़े से बाहर देखते,
उड़ान भरने का दिवा-स्वप्न ।
उसके पीछे है
मेरा कमरा जिसमें आती है पत्नी
रात को
रसोई का सारा काम समेट,
सास-ससुर से झिड़की हुई
थकी हारी ।
इस कमेरे में हैं, सारी दीवारों पर
‘बिल्ट-इन कपबोर्ड़’
जिसमें पुराने कपड़ों, सर्टिफिकेटों के साथ रखे हैं
न पूरे हुए सपने, इच्छाऐं
और धुंधलाते चित्र ।
छत पर, पंखे के अलावा
नक्काशी बनी हुई है सपनों की,
हम दोनों जो बुनते हैं,
बच्चों को ले कर
रात के अंधेरे में,
सूनी आँखों से,
जिनमें किरकिराती रहती है
‘होम-लोन’ की अगली किश्त ।

इसके बाद है किचन
जो है पत्नी का कमरा
और जिसमें सोती है
लड़की,
जमीन पर बिस्तर लगा कर
वो भी थकी हारी,
कालेज़ से आ, माँ का हाथ बंटा
सूखती जा रही है जो
दिन रात शादी की चिंता में।

सबसे पीछे के कमरे में हैं
मेरे बापू,
लकवा ग्रस्त, खटिया पकड़े हुए,
और माँ, उनकी तीमारदारी में ।
इस कमरे में हैं
नदी का साफ़ पानी,
खेतों की हरियाली,
अमराईयाँ,
गांव की खुली हवा,
जो बहती रहती है
सिर्फ़ उनकी यादों में।

पाँच तत्वों में से
आता है,
हमारी जिन्दगी में
जल, नलके से,
भुंसारे,
पद्रह मिनट के लिये ।
वायु, मिज़ाज़ानुसार,
दरवाज़े से ।
आकाश,
चोरी छिपे,
रोशनदान से ।
अग्नि,
महीने के अंत तक धीमी होती हुई,
गैस-चूल्हे से ।
और रहता है हमारे नीचे,
थल,
पूरा का पुरा,
‘पंद्रह-बाई-पचास’।

*************

न जाने क्या हो गया है मुझे
जिसका पता नहीं लगा पा रहे हैं
डाक्टर, जिन्हें लोग नामी गिरामी कहते हैं
हमारे इंदौर शहर में।
अक्सर उठ जाता हूँ सोते-सोते रात में कभी भी
हड़बड़ा कर,
कि मुझे लगने लगता है डर
कि कहीं
धुरी से तो हट नहीं गई यह धरती,
कहीं वराह तो नहीं डगमगा गया
इस भारी होती धरती को ढोते-ढोते,
या हो सकता है कि उसकी नाक में सुरसुरी हो रही हो
और छींक आने के पहले लुढका दी हो उसने
एक ओर।
और घबरा कर मैं टी0 वी0 आन करता हूँ
क्योंकि मालूम है कि अगर हट गई धरती धुरी से
नहीं आ पायेंगे सेटेलाईट से सिग्नल,
डिश तक ।
देखता हूँ कि सी0एन0एन0 आ रहा है,
उसी चेनल पर जिस पर मैं सोने से पहले छोड़ गया था।
वर्ज़ीनिया-टेक केंम्पस में हुआ था शूट-आऊट
मारे गये थे कुछ प्रोफ़ेसर और ग्रेजुएट स्टुडेंट
कुल मिला कर तेंतीस,
हमलावर छात्र साउथ कोरियन, चेंग, को मिला कर ।
मारी गई थी उसकी प्रेमिका भी
उसी के द्वारा।
लगातार विज़ुअल्स दोहरा रहे थे
लेरी किन्ग (लाइव) पर
जो भारी प्रोफ़ेशनल आवाज़ में,
अपने पचास साला अनुभव की सिल्वर ज़ुबली मना चुका था ।
एक त्रासदी के यथार्थ से रु-ब-रु हो रहे होते,
सिसकते ,
मरे और घायलों के परिजनों से खोद खोद कर
पूछ रहा था प्रश्न
और बढा रहा था
टी0 आर0 पी0 अपने प्रोग्राम की,
और बाज़ार में अपनी कीमत।
यह ज़रूर है कि ज़ाहिराना तौर पर
निभा रहा था अखबारनबीसी, जो यकीनन उसका पेशा है।
कर रहा है वो यूँ भी क्योंकि
कहते हैं मनोवैग्यानिक कि
हादसे से जुड़े जिंदा लोग, रो लें, रो सकतें हैं जितना
और समझ सकें, किसी के साथ कि क्यों हुआ ऐसा
तो ला सकेंगे पटरी पर अपनी जिंदिगियाँ जल्दी
बिना दिमाग पर कोई दाग लगे।
तो हुई यह भी जिम्मेदारी संचार माध्यम की
जिसने बना दिया है
गांव और बाज़ार पूरी दुनिया को
जो निभा रहा है, लेरी किंग
बखूबी,
भाषा के पूरे इस्तेमाल के साथ।

उसी दिन की दूसरी रिपोर्ट थी, ईराक की,
एक और कार बम विस्फ़ोट हुआ था
बाज़ार में ।
रोज़मर्रा की चीज़े खरीदते बच्चे, बूढे, महिलायें और जवान
जिन्हें एक लफ़्ज़ मे कहा जा सकता है, अफ़्ररात,
हलाक़ हुए लगभग दो सौ,
लग गये थे ढेर लाशों के,
दिखाये जा रहे थे
-बेहाल, रोते बिलखते रिश्तेदार ।
-जली और विक्क्षत गाड़ियों से,
-बाज़ार की जली इमारतों से,
-टुकड़ों-टुकड़ों निकालते लाशें, ईराक़ी ।
-सारे साज़ो-सामान से सजे राईफिल मुस्तैदी से ताने,
इधर उधर देखते मेरीन।
नहीं था लेरी किंग (लाईव) उस रेपोर्ट में
नहीं ज़रूरत थी
संवारने की
हादसे की हद से गुज़र गये लोगों की ज़िन्दगियाँ
क्यों कि कर दी गई है सारी जनता अभिशप्त
मरने को।

घबरा कर करने लगता हूँ चेनल-सर्फ़
बी0 बी0 सी0 पर आ रहा है
वही सब जो सी0 एम0 एन पर।
आना भी चाहिये
हम-प्याला है ‘वार-आन-टेरर’ का ।
आ रही है ई0टी0वी0 उर्दू पर जुर्म-ए-दास्ताँ,
निठारी संहार ।
आजतक पर आ रही है,
चर्चा यू0 पी0 चुनावों की, सी0डी0 की
लगे हुए हैं पर्टियों के नुमांइंदगे वार-प्रतिवार करने
अपने अपने गलों में,
पालतू बफ़ादार कुत्तों से,
अपनी-अपनी पार्टियों के पट्टे बांधे
हिदू-मुसल्मान वोट नोंचने।
ज़ी0 पर कूल्हे मटका रहा है गोविन्दा
‘अंखियों से गोली मारे’ गाते हुए
और सहारा पर कर रहा है ऐलान अमिताभ
कि जुर्म यहाँ कम है,
बिल्कुल बेखबर कि दूसरी चेनल पर
आ रहा है निठारी कांड,
जो है यहीं यू0 पी0 में।
कमज़ोर रहा होगा ज़ुगराफ़िया उसका, स्कूल में, शायद।
अगली चेनल में ही फिर है अमिताभ बच्चन
चल रहा है ‘कज़्ररारे-कज़रारे ‘
ठुमक रहे हैं अमिताभ और अभिषेक
ऐश्वर्य राय के 36-24-36 के दोनों तरफ़
कदम-ब-कदम लहराते,
उसके कजरारे नयनों से बंधे।

स्टार इन्फ़ोटेन्मेंट में क्लिपिंग्स दिखाये जा
रहे हैं अभिषेक-ऐश्वर्य की मेंहदी रसम की
खड़े हैं अमिताभ दरवाज़े पर,
मेहमानों का स्वागत करते।
लगता है सब ठीक है
रिशते भी ठीक होंगे।
नेशनल जियोग्राफ़िक भी है,
ऐनिमल प्लेनेट भी है,
हिस्टरी पर हिटलर मौज़ूद है।
आश्वस्त हो जाता हूँ कि
सब ठीक है।
सारे चेनल आ रहे हैं,
सारे सेटेलाईट अपनी जगह पर हैं।
धरती अपनी ही धुरी पर घूम रही है
और होना भी चाहिये ।
माँ ने बहुत पूजा की थी
सोरों में,
ज़ब मैं पेट मैं था
दुनिया के इकलौते मंदिर में,
जहाँ वराह प्राण-प्रतिष्ठित हैं।
अभिमन्यु की तरह,
मैनें भी की होगी उसकी पूजा।
छींक आने से पहले, अब मुझे भरोसा हो गया है
कि रख देगा वराह धरती को सभाल कर कहीं।

एक लम्बी साँस लेता हूँ
और देखता हूँ चारों तरफ़,
बच्चे दूसरे पलंग पर लेटे हुए हैं
एक दूसरे से लिपटे,
पत्नी, पूरी दुनिया से बे खबर
छातियाँ उघेढ़े सो रही है,
आँखें बायें हाथ से ढके।

मैं दुनिया में पूरा का पूरा वापस आ गया हूँ
और लगने लगा है कि
दुनिया उस दिन धुरी से उतर जायगी
जिस दिन सभी चेनलों पर दिखाई देंगी
हरी हरी वादियां, चहचहाते परिन्दे,
लहलहाती नदियाँ, ज्वार भाटे के साथ हरहराता समुंद्र
चाँद, नीला आसमान, चमकता सूरज
और सिरे से नदारत होगा स्क्रीन से,
इंसान ।
**

नाखून, समय और रास्ता

बाजू-सीट पर बैठी पत्नी काट रही थी
नाखून, समय और रास्ता,
विंडस्क्रीन के सामने से भागती दुनिया से बेखबर।
( यह बात और है कि इनके अलावा और भी चीजें हैं
जो वह काटती रहती है, मसलन भाजी, कपड़े, बातें )

नाखून और समय
दोनों बढते रहते हैं
और दोनों का कटना लाज़मी है,
काटना मज़बूरी।
हैरत है कि दोनों ही कट जाते हैं।
रास्ता भी कट जाता हैं, बेचारा।
नाखून सभी के हैं, दुनियाँ भर में
जानवरों के भी
कौन काटता है, कौन नहीं
कहना मुश्किल है।
यह ज़रूर है कि आदमी काटता अवश्य है
भले ही दिखावे के लिये।

समय सर्वव्यापी है
एक ही समय में, कई-कई जगह
अच्छा और बुरा, अच्छों और बुरों से जुड़ा।
मसलन कि जिस समय
क्रूज़ मिसाईल लांच पेड से छूटी
उसके सामने नक्शा था, पूरे रास्ते का
हज़ारों किलोमीटर्स का।
कैसे छोड्ते जाना है हरे-भरे जंगल, नदियाँ, वादियाँ,
तेल के कुंऐ, शहर, सरहदें, इच्छाऐं।
नहीं भटकना है इच्छाओं में
उसे मालूम है
कैसे निकलना है दो पहाड़ों के बीच से
कैसे गुजरना है ऊंची इमारतों के बीच से
पहुंचना है बगदाद,
‘अर्जुन की आँख में सिर्फ़ चिड़िया की आँख’
मिसाईल की आँख में
बगदाद के मुहल्ले की एक तंग गली में एक अदना मकान।
मकान अनजान है तीर से,
और मिसाईल को नहीं मालूम
कि मकान, घर है,
कि घर के अन्दर है
एक इंसानी पीढियों का स्म्रति-इतिहास,
बरतन-भांडे, पुराने कपड़े, इबादत की चटाई, धुंधलाये चित्र,
एक चूल्हा,
एक बीमार माँ,
संयुक्त-राष्ट्र-प्रतिबन्धों की मार से मरे,
अपने बच्चों को कब्रिस्तान पहुंचाते-पहुंचाते
जो पड़ी है निढाल,
उसी समय घर लौट कर्,
अपनी सूनी आँखों में उनके मासूम बचपन समेटे।

मकान देखते ही मिसाईल के चेहरे पर एक मुस्कान थी
(अमूमन वैसे ही
जैसे कि होती है चेहरे पर, रोज़मर्रा मिलने वालों के
एक दुसरे से रास्ते में टकराने वालों की नज़र मिलने पर)
मकान को, जो यकीनन एक घर था,
मुस्कराने का समय ना मिला
बस एक ही समय में
मकान, घर और मिसाईल सभी ध्वस्त थे।
चिथड़ों में बंट चुकीं थीं,
मिसाईल……माँ………
रास्ता दोनों का लम्बा था, कट गया।
समय एक था,
रुक गया दोनों के लिये।
माँ की आँखों में यकीनन उस समय भी
हर एक बच्चे के साथ एक सपना ज़रूर था, जो
उन बच्चों को पूरा करते, वो कल्पना करती थी।

इन सब से बेखबर
नाखून बढते रहे दुनिया में,
लन्दन-वाशिन्गटन में भी
प्रजातन्त्र के भी
अंतरराष्ट्रीय समुदाय के भी
‘स्वतंत्र दुनिया’ के भी।
नाखून कुरेदती,
बैठी दुनिया
कब का भूल चुकी है समय कुरेदना।

बाजू-सीट पर बैठी पत्नी, माँ भी है
और उसके पास अब भी, कुछ हो न हो
संम्भावना ज़रूर है ।
विंडस्क्रीन के सामने से भागती दुनिया से है वो बाखबर
होते हुए भी बेखबर ।