6/16/2007

हम अपने तलुए चाटते लेटे थे
वैसे ही
जैसे चाटते थे
नन्हे-मुन्ने थे हम, जब
दौनों हाथों से पैरों के पंजे पकड़
अंगूठा मुँह में डाले ।
और दुनिया देख रही थी
हमें
स्नेह मिश्रित, संरक्षणीं नज़रों से,
अभिभूत,
हमारे होनहार होने की कल्पना कर ।

पालने में, पांव हमारे
हमें भी लगने लगा कि होनहार पूत के ही हैं।
पिछ्वाड़ा हमारा,
संस्क्रति, सभ्यता और इतिहास की चिंदियों के डायपर्स से ढंका था
नये नये सस्करणों में बनाने के कारखाने
हर राजनीतिक गली-कूचों में लग चुके थे,
जिनके ।

हम अपने आप ही लोरियाँ गाते-सुनते
ऊंघते-सोते,
छोटे-छोटे कुऐं बनाते
और उनमें टर्राते, सुखी थे
हर कुएं में भी अपने अपने गुट थे
हर गुट मानता था अपने को
सर्वश्रेष्ठ
और अक्सर किसी न किसी बात पर
दो चार सरकारी गाड़ियाँ, दफ़्तर फूंक डालते
और कर देते हलाक़ दस बारह ।
आस्था हर एक की इतनी भयानक कि
क्या प्रजातंत्र, क्या कानून, क्या धर्म
ऐसी की तेसी कराने में लगी होड़ ।
इंडिया गेट पर,
पहले गणतत्र दिवस से
करती रही,
कदम ताल,
गरीबी,
पूरी श्रद्धा और लगन के साथ
और होता गया
हर एक का ‘मेरा भारत, महान’
चिपक गईं यथा-तथा तिरंगी चिंदियाँ
कुछ लोगों की कारों पर
और कुछ के भूखे पेटों पर।

इस बीच
हमने अपने पुंसत्व की पुन: जांच कराने की सोची
लगा दिया देश की आला प्रयोगशालाओं को
पोखरन में निकला एक बड़ा लिंग
पार्वती की योनि से उठता हुआ
धन्य हुए हम , गद गद हुए
और बजरंगियों की एक पूरी पौध
ढोल-मंझीरों के साथ
टाईम मशीन में ठस पहुंच गई
उस समय में
रामायण लिखी नहीं गई थी, जब
और राम लला का जन्म हुआ ही चाहता था।
दंगे होंगे या नहीं
करोड़ों का सट्टा लग चुका था
हासिल कर ली थी महारथ
दोनों विधाओं में, हमनें ।

उन्होंने देखी, हमारी आँखों की चमक,
नये नये मोबाईल, रंगीन टी0 वी0 , कारें
पालने में ऊपर लटकते, झूलते देख
और देखा
दो नंम्बर के गांधी भरपूर
फ़िज़ा में
चेती दुनिया
कि बेचा जा सकता है अपना माल इनको
बस जरा सा और गाजर दिखाने की है ज़रुरत ।

एक दिन सुबह हमने पाया कि
हो गये हैं हम महान, उभरती शक्ति ।
आये, लम्बे हैट और टेल कोट पहने वे
आते ही कहने लगे
एक, दो, तीन
(जैसे कहते थे बच्चों को रेस दौड़ाते,
कभी हम)
छोड़ो अपने तलुए चाटना,
यह बचपनी आदत
तुम महान होने जा रहे हो
और हम बनाएंगे, तुम्हें महाशक्ति
आओ
चाटो तलुए, हमारे ।
शेष यात्रा एक नयी यात्रा की शुरुआत है