11/26/2007

ek subah utha jab

एक सुबह उठा जब
छाई हुई थी अजब सी खुमारी सारे बदन में
एक उबकाई सी आ रही थी
और उलटी की आशंका में
स्वत: स्फूर्त निकला थूक
भर रहा था मुँह में
समझ गया मैं कि
तमाम दाईओं से आँख बचाते पाल रहा था जिसे पेट में
पिछले साठ सालों से
नहीं रुक सकेगा अब और
ले कर ही मानेगा जन्म, अब ।

पुरानी बात है,
उस समय के सेपियाए चित्रों में
दिखाई दें शायद, आपको भी
गांधी टोपी और बटन-होल-लाल-गुलाब के साथ नेहरु
कभी भाखड़ा नंगल की रखते, आधारशिला,
कभी समर्पित करते,
बटन दबा कर भाखड़ा नंगल से छोड़ते,
नहर में पानी।
उस समय तक ऐलान हो चुका था
कि होंगे वही नये मंदिर, रिसर्जेंट इंडिया के ।

उसी समय की बात है
गंगा किनारे, दारागंज में,
एक तंग कमरे में,
चूल्हे की राख में की गई गर्म ईंट,
कपड़े में लपेट, अपने पेट पर बांध,
उम्र और कद में भाखड़ा नंगल से बड़ा,
एक कद्दावर शख़्स, नंगे बदन
तहमत बांधे, कुछ बुदबुदाते ओंठों से,
हो रहा था अपनी जराग्नि से, रु-ब-रु
कि दो पलक झपक लें कांत आँखें
हो गईं थीं जो क्लांत ।
वो कवि था, महाकवि था
पर नहीं था वो मंदिर,
रिसर्जेंट इंडिया का
हालांकि मालूम थी उसे,
वहां से आनंद भवन तक की दूरी
अंतहीन थी जो, उल्टी दिशा में ।

दूरी तो वो भी काफ़ी थी
राजनांदगाँव से दिल्ली तक
जीते जी तय कर पाना शायद संभव न था
खंडहरों के बीच से/
खंडहर होते शरीर से/
जिसमें आत्मा और आत्मा के सिवाय कुछ भी नहीं था,
परमात्मा भी नहीं ।
बीड़ी के धुएं सी कसैली रोशनी
भीतरी अंधेरों को रोशन करती
आह थी वह
और भाखड़ा नंगल से रिशता, उसका,
उतना ही था
जितना जुड़ा रहना था, उसका,
उसी जमीन से ।
वह भी कवि था, उतना ही
जितना,
गर्जन करता/ उफनता/ फुफकारता/
बाँध से छूट,
गिरता पानी ।

बचपन से बाहर होते, मुझ
और मुझसे बाहर होते सपने,
घुमड़ते बादल, रिमझिम बारिश, सर्द शाम और
पत्तों पर ओस की बूँद
धीमें से कहने लगे कुछ-कुछ, जब,
आने लगे आँखों के सामने
आंगन में चकहते
छोटे भाई बहन,
पहने,
रिश्तेदारों के बच्चों की उतरन ।
बाहर, राशन की लाईनें,
माँ-बाप के सपने,
मास्टर बाप की मज़बूरियाँ
और
महसूस होना
एक तुकान्त कविता में जकड़े जाना/
जकड़ते चले जाना ।
पता चल जाना,
काज़ की सी ज़िंदगी में
गुंजाइश नहीं है कवि की
रख दिया था उसी क्षण भीतर
संवेदनाओं के न्यूनतम तापमान पर
डीप-फ़्रीज़ में, भ्रूण
और भर दिया था, अंतराल
नून-तेल-लकड़ी से ।
लगता है
जिजीविषा, अजन्मे कवि की
मार रही है अब/ पेट में/ लातें ।

11/08/2007

Miil ka patthar

मील का पत्थर

मील का पत्थर,
नहीं जाता मील से एक इंच भी आगे,
न ही खींचता कदम, एक इंच भी पीछे ।
होते हुए जड़,
अपनी तमाम जड़ों के साथ,
घूमता रहता है प्रथ्वी के साथ
उसकी धुरी पर, उसकी कक्षा में,
तय करता, करोड़ों मील ।


उसने देखा था पगडंडी को
अपने सामने ही
पगडंडी से जवान होते,
बदलते, रास्ते में
ठीक उसी तरह जिस तरह
गिट्टियों के ढेर पर खेलते-खेलते
हो गई थी, मुनिया
कोलतार से जले पैरों के साथ,
जवान ।

उसने देखा गांवों को जुड़ते, शहर से
उसने देखा बाप से टूटते, बेटे को,
अभी-अभी जो निकला है
इसी रास्ते, हवा से बातें करते,
‘स्प्लेंडर’ पर, तेजी से ।
मालूम पड़ गया उसे
अब नामुमकिन होगा
किसी भी तरह रोकना,
खप जाना उसका
बाज़ार में।
मैंनें देखा रास्ते को,
बदलते हुए राष्ट्रीय राजमार्ग में
दौड़ रहीं थीं इच्छाऐं जिन पर,
बे लगाम ।

मैं उसी जगह खड़ा हूँ, सदियों से
राम और रहीम
यहीं से निकले थे
और नहीं था
कोई धर्म ग्रन्थ, उनके हाथों में।
रुके थे एक क्षण राम मेरे पास,
सांस लेने
सोचा मैंनें, कि पता लग जाय मुझे,
शायद छू लें वो,
क्या था मैं पत्थर होने से पहले ?
छोटी सी इच्छा, यह
मेरे सोचते ही, स-शरीर दौड़ भागी
उसी राष्ट्रीय राजमार्ग पर
और मैं खड़ा रह गया
भौंचक, वहीं।

इसी रास्ते गुजरा था युधिष्ठिर
थका हारा,
सिर्फ़ कुत्ते के साथ ।
वह धर्मराज था
फ़िर भी निपट अकेला था ।
इसी रास्ते से निकली थी रथ यात्रा
जिसके चकों से निकली, शकुनि की आवाज़
फैल रही थी
बड़े-बड़े लाउडस्पीकरों के चोंगों से
‘चल फेंक पासा………
लगा रामलला दाँव पर’
साथ में था एयर-कंडीशंड कारों का काफ़िला
भरे थे जिनमें, वे,
सुनी थी जिननें, सिर्फ़ लोरियों में
खंडहरों की भव्यता ,
धर्म की सान पर चढ़ रही थी धार
और गुबार में फट रही थी दाँत-काटी रोटी।

मैं फिर भी खड़ा था
वहीं,
उसी राष्ट्रीय राजमार्ग पर
जिसमें थीं अब अनगिनत लेनें
और
हर लेन पर बैठी थीं
महापंचायतें,
चक्का जाम किये ,
एक दूसरे पर त्रिशूल ताने ।
इस सब से पूरी तरह बेखबर,
यकीन मानिये,
सो रही है, बुढाई मुनिया।
शोर-ओ-गुल से बे-वास्ता,
झोपड़े में, थक कर,
दिन भर पत्थर तोड़ कर ।

यकीनन,
मैं हूँ उसी टूटी शिला का अंश
यकीनन,
इंतज़ार में हूँ, मैं, अब भी
किसी राम के गुजरने का,
इसी राष्ट्रीय राजमार्ग से ।

DAYAAN HAATH

बहुत पुरानी नहीं है यह बात
होगा 2004 का कोई दिन
सो कर उठा जब एक सुबह
उठाए जैसे ही हाथ अंगड़ाई लेने
निकल कर कंधे से सीधा हाथ
लग गया बांयें कंधे पर
बायें हाथ के साथ
और सीधे कंधे पर बची सिर्फ़
हवा में लहराते परचम सी
मेरी कमीज़ की दांईं बाँह ।

घबड़ा कर
उठाया हाथ माथा पकड़ने
कि दोनों ही बाँये हाथ उठ आये
और लगे झगड़ने, मुझे सहारा देनें ।
बोले दोनों, नहीं कोई चिंता की बात
संभाल लेंगे हम दोनों
आखिर हैं तो दोनों ही सही सलामत
हुआ क्या कि हैं दोनों ही बाईं तरफ़्।
सहमत होते देख, दोनों को
आई कुछ मेरी भी सांस में सांस।
बाएं हाथ ने,
और सीधे हाथ ने,
जो था अब मेरे बाएं कंधे पर ही
दिया भरोसा मुझे
कोई तकलीफ़ न होगी मुझको।
उम्मीद तो न थी मुझे, लाचारी थी
किया हालात से समझौता।

पहला झगड़ा हुआ उसी रात
बैठा जब जीमने को
उठाया सीधा हाथ, आदतन
जैसे ही कौर ले मुँह की तरफ़
लगा बांया हाथ ज़िद करने
पकड़ लिया सीधे हाथ को, कलाई से
कि देगा वह कौर मुझे ।
समझाया उसे मैनें
शास्त्रों ने कर दिया है निर्धारित सीधे हाथ को
हर शुद्ध धार्मिक कार्यों के लिये,
अर्ध्य- आहुति देने के लिये,
रहना पड़ेगा मर्यादा में
नहीं है शास्त्र सम्मत,
भोजन करना शौच के हाथ से।
लगा शास्त्रार्थ करने इस पर वह
हैं हम दोनों ही बांईं तरफ़
हैं हम दोनों बराबर
उठाते थे तलवार जब दाएँ हाथ में
करता मैं ही था ढाल से तुम्हारी रक्क्षा
नहीं मानता मैं धर्म –शास्त्र, ऊँच-नीच
रख्खो तुम पुंगी बना उसे
खाना है तो खाओ, नहीं रहो भूखे।
खिन्न मन उठ गया थाली से
अध-भूखा ही
किसी तरह थाली में मुँह मार।
चलने लगी इस तरह गाड़ी
किसी तरह पटरी पर
देखते नहीं, झुका रहता हूँ कैसे,
बोझ से बाईं तरफ़
चलता हूँ गि्ड़ते-पड़ते।

मुसीबत होती है उस समय, अक्सर
बढ़ाता हूँ सीधा हाथ जब कभी किसी से मिलाने को
जैसा करता था पहले,
बांया पकड़ लेता है दायें की कलाई
अगर नहीं चाहता कि मिलूँ मैं किसी से
जिसे न चाहता हो वह।
हो गये हैं अजीब हालात,
छूट चुके हैं सब नाते रिश्तेदार, मित्र,
दया से देखते हैं सब
मेरी लहीम–शहीम सुन्दर काया को
और हो जाते हैं चुप, सोच कर
होगा शायद पिछले जन्मों का पाप
कहते हैं मेरे कंधे पर हाथ, पीठ सहलाते,
‘धैर्य रखो, सब ठीक हो जायगा’ ।

‘हर काले बादल में होती है चाँदी की परत नीचे’
जरूर होती होगी
हुआ कुछ ऐसा ही मेरे साथ भी।
आई एक बहु-राष्ट्रीय कंम्पनी
कहने लगे सी0ई0ओ0 आ कर
क्यों कर रहे हैं जाया अपनी प्रतिभाशाली काया को
भुनाईये इसे, समय रहते
रहा यह एग्रीमेंट, करिये साईन
देंगें हम करोड़ों डॉलर हर साल
करना नहीं है कुछ आपको
रहना है आपको हमारे साथ, रोड शो में
जहाँ-जहाँ ले जाऐं आपको, चलें,
रहेगा सारा इंतज़ाम, वातानुकूलित
बोलना नहीं है आपको कुछ भी
बस रहिये मुस्कराते, है शर्त यही्।
कर दिये दस्तखत करार पर
और निकल पड़ा दुनिया में,
गया जहाँ ले जाया गया
हालाँकि बांये हाथ को नहीं था, पसंद
मेरा इस तरह सौदा करना
पर करे थे कंम्पनी ने उम्दा इंतज़ाम
अच्छा खाना-पीना था,
बढ़िया पहनना ओढ़ना था,
आदत पड़ती जा रही थी, उसको भी
लगने लगा था अच्छा उसे
बस थोड़ी बहुत कुनमुनाहट थी, रुसवाई थी यदा-कदा,
हो चला आश्वस्त मैं
कि हो चला है, उसकी आदत में यह तेवर शुमार।
हो गया दुनिया भर में मशहूर मैं,
ब्रॉंड एम्बे्सेडर अपनी बिकी जिंदगी का
शुमार थी जिसमें हर बिकाऊ चीज़
दिखाई देता था हर विग्यापन में
मेरा मुस्कराता चेहरा और
बाँये कंधे से उठते दोनों हाथ
बांया मुठ्ठी कसे हुए, लाल सलाम मुद्रा में
और
दांया हथेली खोले हुए, हिलते हुए।

इंडिया गेट पर
घूम रहा था लोकेल शूट के लिये, एक दिन,
देखता, राज पथ, बोट क्लब,घास में खेलते बच्चे,
पेड़ के नीचे जोड़े,
कैमरे चल रहे थे, चल रही थी ओ0वी0 वेन, साथ
निकल रहा था शहीद ज्योति के पास से, जब
लगा कि हो गया है, पैज़ामें का नाड़ा,
ढीला
और खिसक रहा है पैजामा मेरा।
संभालने की कोशिश की, नाड़े के छोरों को टटोलते
बाँये कधे पर लगे दोनों हाथों से
खिसकते पैज़ामे से घबरा्ये, थरथराते रहा
सीधा हाथ
उधर खींच लिया बाँये हाथ ने अपना हाथ
और गांठ बाँधने की हर कोशिश, हो गई नाकाम
खिसक गया, पैजामा ।

देखा गया
गिरता हुआ पाज़ामा मेरा
स्लो -मोशन में, बार-बार, सभी चैनलों पर,
ब्रेकिंग न्यूज़ में ।
उस क्षण लगा मुझे,
सीधे हाथ का सीधे कंधे पर होना
चाहे ज़रुरी नहीं हो
उतना धार्मिक कर्मकांडों में,
ज़रुरी है, जितना पैज़ामे के नाड़े की
गाँठ बाँधने के लिये।

10/19/2007

जिंदगी शुरू की थी जब

जिंदगी शुरू की थी जब
सुनहरे सपनों के साथ,
उज्ज्वल भविष्य की आशा में
पता नहीं था उस समय
कि हो जायगी वह
किसी रेस्ट्राँ में, टेबुल पर,
मेन कोर्स आने से पहले
स्टार्टर सी,
दाँतों से कुतरी,,
टुथपिक से बिंधी ।

10/09/2007

नहीं फर्क पड़ता अब

नहीं फ़र्क पड़ता अब

नहीं फ़र्क पड़ता अब
कि कही जाय बात
कविता में, कहानी में या किसी उपन्यास में ।
लिखा हुआ
सिर्फ़ ह्ज़ूम है अक्षरों का
मौका पड़ने पर जो
निकल जाये सड़कों पर, दंगाईयों सा
सिमट जाय हर हर महादेव में ।
वैसे भी भीड़ में, सड़क पर,
औरत के पेट को चीर,
भ्रूंण को भाले की नोक पर लहराने के लिये
जरूरत नहीं है अक्षरों की
जो किंडरगार्डन में
लकडी या प्लास्टिक के गुटकों पर छपे
बच्चों को बहलाने के काम आते हैं
या फिर
चार्ट में सुशोभित
पढ़ाते हैं अशिक्षित, अर्ध-शिक्षित, सुशिक्षित अनपढ़ों को
क से कटुआ, म से मोबाईल, र से रिश्वत
ट से टू-इन-वन, त्र से त्रिशूल, ध से धर्म,
बड़ी ई से ईसाई
ज से जाति
मेरी अलग और तेरी अलग
स से संस्क्रति, तुम्हारी नहीं
ह से हिन्दू,………… गर्व से कहो हम हिन्दू्…
ड से डिश, ग से गोत्र
ब से बजरंग बली,
आ से आसाराम ।

प्रभात फेरी पर निकलते नहीं, अक्षर
क्योंकि दफ़ा एक सौ चवालीस का भय है ।
वैसे भी
समूह बना कर उनका
कुछ भी अर्थवान कहने ही कोशिश करना,
बहरे का बीन बजाना है
क्योंकि सब यहाँ हैं
आँख के पूरे, कान के पूरे,
अंधे-बहरे ।

सोचते होंगे आप
अज़ीब अहमक है यह
करे जा रहा है पन्ने पर पन्ने काले इन्हीं अक्षरों से
और चूकता नहीं उन्हें कोसने ।
बता दूँ साहब
बड़ी मुश्किल से लाया हूँ
मिन्नतें कर,
साम-दाम दंड-भेद से
भाई और चारे को साथ
लगा है भाई, दाऊद के साथ
और चारा, लालू के साथ
मिल रही है, मलाई, उन्हीं के साथ
थोड़ा जगाया ज़ज़्बा देश प्रेम का, मानवता का
राजी हुए
श्री-फल और कश्मीरी दुशाले पर
अपने कीमती वक्त से,
अन्य व्यस्तताओं के बीच से कुछ पल निकाल,
सदारत करने इन पन्नों पर
करूँ मैं इन्हें आमंत्रित इससे पहले, दो शब्दों के लिये
करें आप स्वागत इनका
जोरदार तालियों से
जो भी कहें, ये,
कहा अन-कहा,
लें सिर आँखों पर
लूँगा नहीं आपका और ज्यादा वख्त
करता हूँ माननीय अतिथियों से विनती
आयें मंच पर,
करें अनुग्रहीत हमें
जयहिन्द ।

9/23/2007

SOME POEMS IN ENGLISH

1.

Life has just departed
With me in its baggage
And a Tiffin of memories,
Leaving the feeling of
Just missed train,
Back on the platform.

Were it not for the receding tail lights
There would not have been a trace of
Me
That came and was lost in wilderness,
Of hatred,
Of holocausts in every backyard,
Of Vietnam and Iraq,
Of Sahara of hunger and disease,
Of bigotry of Gods,
Of riches and penury,
Of treachery of man against man.

I look now from distant future
Of paths traversed,
Steps on sand dunes,
Of someone crossing
With himself in tow,
With a sapling in his hands,
To plant
In some fallow land,
On this earth,
Without frontiers,
Without boundaries,
Without deed papers.

----------------------
2.

Of clouds that hung on a low ceiling sky
I can say nothing
There were none on that fateful night
The sun that retired the night before
Did not wake up this morning
In time.

High on cocaine, with uncertain steps
We walked few steps, you and I
Down to the river bank
Of memories
Those were washed ashore from distant past.
Pebbles lighted by darkness
Glowed
The child in me jumped out on the balcony
With excitement of new found love
As
The sun was just about picking stars
From that low hung ceiling______
Pigs on a garbage dump
The leftovers from life
Spent on shoestring budget.
I have legs that take me into future
With or without
Shoes
On dreams that you and I often weave
Of just being.

------------------------------------
3.

In the evening shadows
On my retina
The lights do not stir,
Stir anything, any longer
And I suddenly stop in my tracks
On a journey
Through endless roads,
Of memories,
Of time spent,
Of love lost,
Of fields deserted,
Of rivers dried.

In my drawing room the wall clock stops
I really pass, from is to was
In to the memories
Of my sons and daughters,
For hard times they had
Of my brothers and sisters,
For all the attention that I had taken away
Of my wife
Who will certainly remember
My hands moving on her body
Lips crushed between teeth.

Put me down on the ground
Without pillow or mat
I still want to feel the pain
Of protruding stones
Of unpleasant memories
Piercing my back.
Must I walk,
walk unaided
On wings that will fetch me
To the coreOf someone who has been,
had been.
-------------------------------

9/15/2007

कविता संग्रह से

रात का एक पहर अभी शेष है


आँख खुलते ही
पता चल गया था कि
दुनिया वैसी नहीं रह गई है
जैसा छोड़ गया था, सिराहने,
चशमें के साथ,
सोने से पहले।
अभी तक गनीमत थी यही कि नौटंकियाँ
होती रहती थीं ज़मीन पर ही
हैरान हूँ देख कर कि दौड़ रही थी
सुनिता व्हिलियम्स
ट्रेड़-मिल पर, ‘बोस्टन मेराथान’
स्पेस स्टेशन में
और मैं देख पा रहा था उसे
यहाँ पलंग से
लेटे लेटे ।
घबड़ा जाता हूँ, कि यह
हो क्या गया ?
कि ‘मेटामार्फ़सिस’ हो गई है मेरी,
बदल गया हूँ मैं
फिट कर गया है कोई
मेरी आँखों में
रेटिना की जगह
एक शक्तिशाली, हज़ार मेगापिक्सेल, ‘इमेज़ सेंसर’ ।
देख सकता हूँ मैं
आदमियों, दीवारों के आर पार,
हद और सरहदों के आर-पार,
अंतरिक्ष में, पाताल में,
देश काल से भी आगे,
या पीछे,
और वो भी बिना किसी
चश्में के ।

ओफ़ क्या मैं संजय हो गया हूँ?
नज़र उठा के देखता हूँ,
आकाश पर बिछा हुआ है जाल,
तेजी से घूमते हुए
तरह तरह के सेटेलेएईटों का,
बंधी हुई है दुनिया जिसमें ।
दौड़े जा रहे हैं सभी
देश, एक दूसरे के बेडरूम में झांकते, फोटो लेते
तुरंत चादर खींच कर
ढक देता हूँ, हड़बड़ा कर
साथ, बेखबर सोई
घर के कामों से त्रस्त,
पत्नी की उघड़ी छातियाँ, जांघें।
कुनमुनाती, करवट बदलती है, वह
मुँह से निकल जाता है अनायास, मेरे
‘संजय उवाच ----
सो लो और थोड़ी देर।‘
अरे यह क्या ?
क्यों बोल गया यह, मैं…
‘सजय उवाच’?
चकित हूँ ।
ओफ़,
घबड़ा कर बालकनी में आ जाता हूँ
सूरज की लाली दिखायी देने लगी है, पूरब में
जापान कब का उठ गया है
उसके हाथ पीछे बंधे हुए हैं
और वह सज़दे में है, खुश
हिरोशिमा में भस्म होते बूढ़े, बच्चे, जवान, औरतें दिखाई देने लगे हैं
वाष्पीक्रत हुए आदमी का अक्स दीवार पर दिखाई दे रहा है
निकला था जो नुक्कड़ से रोटी लाने ।

चीन उठा है अभी, पास में ही, बिस्तर से
आई0 सी0 बी0 एम0 सारी तनी हुईं थीं
अमरीका-रूस के ठिकानों पर ।
उगा रहे थे बुद्धिजीवी खेतों में,
लांग मार्च पर निकले सैनिकों के लिये भोजन,
खुद खेत हो कर ।

नापाम बम गिर रहें हैं वियतनाम में
भाग रही है एक बच्ची नंग-धड़ंग सड़क पर
जलती पीठ लिये ।
देखता हूँ
घूम रही है इस वक्त वही किम फुक,
वाशिंग्टन मेमोरिअल के आस पास,
शाम के समय, मोमबत्ती जलाते,
अपने बच्चों का हाथ पकड़े।
दौड़ते देख रहा हूँ बहुत सी नंगी, जलतीं किम फुक
और भी बहुत सी जगहों में इसी समय
अफ़गानिस्तान में, फ़िलिस्तीन में, ईराक़ में, बोस्निया में,
चेच्निया में, काश्मीर में, मणिपुर में, लंका में………

देख रहा हूँ
अंग सन सू की को
हलके कदमों से
नाशते की टेबिल पर आते
अपने मौन से गुफ़्तगूं करने।
उन सब को सूंघ गया है सांप
जो लाये थे शान्ति पुरस्कार उसे देने
और दे गये कब्रिस्तान का सन्नाटा।

अब मुझे दीख्नने लगे हैं
भाप से उठते हुए एटमी बादल
दुनिया में चारो ओर।

हो गई है इस समय सुबह दिल्ली में,
जिसका कि मैं चश्मदीद गवाह हूँ
रावी के तट पर
जहाँ से गुजरते देखता हूँ
लाशों से लदी बैलगाड़ियाँ लाहौर और अम्रतसर की तरफ़
और यकीन मानिये,
माउंट्बेटन खड़ा है सिर्फ़ अपने तमगों को पहने
राजभवन की सीढियों पर ।
इंडिया गेट पर देख रहा हूँ
जेट्टी पर लगते ज़हाज़,
लद रहे हैं स्वतंत्र राष्ट्र के गुलाम,
बाहर टाई शर्ट पेंट पहने,
अंदर धोती कुरता और तिलक,
शस्त्रों, शास्त्रों से लेस,
हेड्फ़ोन कानों में, मुँह के आगे माइक, आँखें स्क्रीन पर
स्क्रीन सेवर पर माखन चोर, मोर मुकुट सुसज्जित,
आवाज़ अमरीकन अंग्रेज़ी ।
वाल स्ट्रीट पर लगती है गुलामों की बोली
इस समय रात है वहाँ
और सुबह होते ही खड़े होंगे,
काल सेंटर, बदन उघेड़े, ग्राहक के इंतज़ार में।

अबु घरेब के सामने खड़ी रहेगी
‘स्टेच्यू आफ़ लिबर्टी’, हाथी के दाँत की तरह्।
कुरुक्षेत्र मे खड़ी हैं सेनाएं,
आमने सामने
चल रहा है सीरियल,
कौरवों और पांड़वों ने बदल लिये हैं रोल
अपने-अपने
और युद्ध में हैं अश्वत्थामा,
हाथी ही हाथी,
चारों ओर ।
बैठे है सारे ध्रतराष्ट्र
गोल मेज़ के चारों ओर
अपने अपने स्वार्थों से बधे,
पोल रेटिंग से बंधे
संयुक्त राष्ट्र में ।
घबराया मैं, संजय
बोलने के लिये आतुर, आँखों देखा,
अपने रोल से बढ़ कर
आगाह करने को तत्पर
कैसे छोड़ दिया सारे ध्रतराष्ट्रों ने, मुझे ?
चीखता हूँ जोर से
‘अरे ओ ध्रतराष्ट्रों सीखो अपनी विरासत से
क्यों ले जा रहे हो रसातल में
धरती……’
……कि दूर से आती सायरन की आवाज़ें सुनाई देने लगती हैं
रूक जाती हैं घर के ठीक सामने
सायरनी बख्तरबंद गाड़ियाँ,
दनदनाते,
मेरीन्स के बूट सीढियों पर……
जोर की लात दरवाजे प……
और कई नलियाँ, बंदूक की झाँक रहीं थीं
मेरे ज़हन में।

बताया गया मुझे पढ कर चार्ज-शीट…
कि
कह रहा था हर वाक्य के आगे, मैं
‘संजय उवाच—‘,
बाल्कनी में खड़े हो ।
कि अमरीकन सेटेलाईट से सुन लिया था
बुश ने
जो कुछ सोच रहा था में,
कि कर दिया था फ़ोन उसने बाजपेयी जी को,
कि गिरफ़्तार करो इस शक्स को,
कि हो सकता है आगे यह अल कायदा का शातिर
आतकी या हमास का,
कि हो सकता है दुनिया की शांन्ति के लिये खतरा।

कहता रह गया मैं
कि हूँ एक अदना सा सरकारी मुलाज़िम
जिसके होती नहीं कोई जात-पात, लिंग
हैसियत,
न घर में न बाहर ।
एक ही बीमारी है, बस
सुरती के साथ, सोचने की ।
बिल्कुल खतरनाक नहीं।
सुना उनने न एक मेरी, ले गये
रोती चिल्लाती, बिलखती पत्नी को ढकेल परे
भागलपुर में,
चाकुओं से निकाल दी गई थीं, मेरी आँखें।

नहीं है मेरा तकिया कलाम अब
‘संजय उवाच’
और मैं हूँ यहाँ,
सेलुलर जेल में।
बढ़ गई है ड़ाढ़ी
हाथ पैरों में हैं बेड़ियाँ
और रख गया है संतरी
जंगलों के बीच से
ज़हर का प्याला, और
रात का एक पहर अभी शेष है।

**************
जिंदगी, पंद्रह बाई पचास


जिंदगी हो गई है ‘रो-हाऊस’ सी,
पंद्रह बाई पचास पर बने,
तीन तरफ़ दीवारों से घिरे,
मकान की तरह,
बिल्डर कहते हैं, जिसे
वास्तु-अनुरूप आलीशान बँगला।

अंदर हैं, क्रमवार…
ड्राईंग रूम,
जिसमें उठता बैठता, पढ़ता सोता है
लड़का,
दरवाज़े से बाहर देखते,
उड़ान भरने का दिवा-स्वप्न ।
उसके पीछे है
मेरा कमरा जिसमें आती है पत्नी
रात को
रसोई का सारा काम समेट,
सास-ससुर से झिड़की हुई
थकी हारी ।
इस कमेरे में हैं, सारी दीवारों पर
‘बिल्ट-इन कपबोर्ड़’
जिसमें पुराने कपड़ों, सर्टिफिकेटों के साथ रखे हैं
न पूरे हुए सपने, इच्छाऐं
और धुंधलाते चित्र ।
छत पर, पंखे के अलावा
नक्काशी बनी हुई है सपनों की,
हम दोनों जो बुनते हैं,
बच्चों को ले कर
रात के अंधेरे में,
सूनी आँखों से,
जिनमें किरकिराती रहती है
‘होम-लोन’ की अगली किश्त ।

इसके बाद है किचन
जो है पत्नी का कमरा
और जिसमें सोती है
लड़की,
जमीन पर बिस्तर लगा कर
वो भी थकी हारी,
कालेज़ से आ, माँ का हाथ बंटा
सूखती जा रही है जो
दिन रात शादी की चिंता में।

सबसे पीछे के कमरे में हैं
मेरे बापू,
लकवा ग्रस्त, खटिया पकड़े हुए,
और माँ, उनकी तीमारदारी में ।
इस कमरे में हैं
नदी का साफ़ पानी,
खेतों की हरियाली,
अमराईयाँ,
गांव की खुली हवा,
जो बहती रहती है
सिर्फ़ उनकी यादों में।

पाँच तत्वों में से
आता है,
हमारी जिन्दगी में
जल, नलके से,
भुंसारे,
पद्रह मिनट के लिये ।
वायु, मिज़ाज़ानुसार,
दरवाज़े से ।
आकाश,
चोरी छिपे,
रोशनदान से ।
अग्नि,
महीने के अंत तक धीमी होती हुई,
गैस-चूल्हे से ।
और रहता है हमारे नीचे,
थल,
पूरा का पुरा,
‘पंद्रह-बाई-पचास’।

*************

न जाने क्या हो गया है मुझे
जिसका पता नहीं लगा पा रहे हैं
डाक्टर, जिन्हें लोग नामी गिरामी कहते हैं
हमारे इंदौर शहर में।
अक्सर उठ जाता हूँ सोते-सोते रात में कभी भी
हड़बड़ा कर,
कि मुझे लगने लगता है डर
कि कहीं
धुरी से तो हट नहीं गई यह धरती,
कहीं वराह तो नहीं डगमगा गया
इस भारी होती धरती को ढोते-ढोते,
या हो सकता है कि उसकी नाक में सुरसुरी हो रही हो
और छींक आने के पहले लुढका दी हो उसने
एक ओर।
और घबरा कर मैं टी0 वी0 आन करता हूँ
क्योंकि मालूम है कि अगर हट गई धरती धुरी से
नहीं आ पायेंगे सेटेलाईट से सिग्नल,
डिश तक ।
देखता हूँ कि सी0एन0एन0 आ रहा है,
उसी चेनल पर जिस पर मैं सोने से पहले छोड़ गया था।
वर्ज़ीनिया-टेक केंम्पस में हुआ था शूट-आऊट
मारे गये थे कुछ प्रोफ़ेसर और ग्रेजुएट स्टुडेंट
कुल मिला कर तेंतीस,
हमलावर छात्र साउथ कोरियन, चेंग, को मिला कर ।
मारी गई थी उसकी प्रेमिका भी
उसी के द्वारा।
लगातार विज़ुअल्स दोहरा रहे थे
लेरी किन्ग (लाइव) पर
जो भारी प्रोफ़ेशनल आवाज़ में,
अपने पचास साला अनुभव की सिल्वर ज़ुबली मना चुका था ।
एक त्रासदी के यथार्थ से रु-ब-रु हो रहे होते,
सिसकते ,
मरे और घायलों के परिजनों से खोद खोद कर
पूछ रहा था प्रश्न
और बढा रहा था
टी0 आर0 पी0 अपने प्रोग्राम की,
और बाज़ार में अपनी कीमत।
यह ज़रूर है कि ज़ाहिराना तौर पर
निभा रहा था अखबारनबीसी, जो यकीनन उसका पेशा है।
कर रहा है वो यूँ भी क्योंकि
कहते हैं मनोवैग्यानिक कि
हादसे से जुड़े जिंदा लोग, रो लें, रो सकतें हैं जितना
और समझ सकें, किसी के साथ कि क्यों हुआ ऐसा
तो ला सकेंगे पटरी पर अपनी जिंदिगियाँ जल्दी
बिना दिमाग पर कोई दाग लगे।
तो हुई यह भी जिम्मेदारी संचार माध्यम की
जिसने बना दिया है
गांव और बाज़ार पूरी दुनिया को
जो निभा रहा है, लेरी किंग
बखूबी,
भाषा के पूरे इस्तेमाल के साथ।

उसी दिन की दूसरी रिपोर्ट थी, ईराक की,
एक और कार बम विस्फ़ोट हुआ था
बाज़ार में ।
रोज़मर्रा की चीज़े खरीदते बच्चे, बूढे, महिलायें और जवान
जिन्हें एक लफ़्ज़ मे कहा जा सकता है, अफ़्ररात,
हलाक़ हुए लगभग दो सौ,
लग गये थे ढेर लाशों के,
दिखाये जा रहे थे
-बेहाल, रोते बिलखते रिश्तेदार ।
-जली और विक्क्षत गाड़ियों से,
-बाज़ार की जली इमारतों से,
-टुकड़ों-टुकड़ों निकालते लाशें, ईराक़ी ।
-सारे साज़ो-सामान से सजे राईफिल मुस्तैदी से ताने,
इधर उधर देखते मेरीन।
नहीं था लेरी किंग (लाईव) उस रेपोर्ट में
नहीं ज़रूरत थी
संवारने की
हादसे की हद से गुज़र गये लोगों की ज़िन्दगियाँ
क्यों कि कर दी गई है सारी जनता अभिशप्त
मरने को।

घबरा कर करने लगता हूँ चेनल-सर्फ़
बी0 बी0 सी0 पर आ रहा है
वही सब जो सी0 एम0 एन पर।
आना भी चाहिये
हम-प्याला है ‘वार-आन-टेरर’ का ।
आ रही है ई0टी0वी0 उर्दू पर जुर्म-ए-दास्ताँ,
निठारी संहार ।
आजतक पर आ रही है,
चर्चा यू0 पी0 चुनावों की, सी0डी0 की
लगे हुए हैं पर्टियों के नुमांइंदगे वार-प्रतिवार करने
अपने अपने गलों में,
पालतू बफ़ादार कुत्तों से,
अपनी-अपनी पार्टियों के पट्टे बांधे
हिदू-मुसल्मान वोट नोंचने।
ज़ी0 पर कूल्हे मटका रहा है गोविन्दा
‘अंखियों से गोली मारे’ गाते हुए
और सहारा पर कर रहा है ऐलान अमिताभ
कि जुर्म यहाँ कम है,
बिल्कुल बेखबर कि दूसरी चेनल पर
आ रहा है निठारी कांड,
जो है यहीं यू0 पी0 में।
कमज़ोर रहा होगा ज़ुगराफ़िया उसका, स्कूल में, शायद।
अगली चेनल में ही फिर है अमिताभ बच्चन
चल रहा है ‘कज़्ररारे-कज़रारे ‘
ठुमक रहे हैं अमिताभ और अभिषेक
ऐश्वर्य राय के 36-24-36 के दोनों तरफ़
कदम-ब-कदम लहराते,
उसके कजरारे नयनों से बंधे।

स्टार इन्फ़ोटेन्मेंट में क्लिपिंग्स दिखाये जा
रहे हैं अभिषेक-ऐश्वर्य की मेंहदी रसम की
खड़े हैं अमिताभ दरवाज़े पर,
मेहमानों का स्वागत करते।
लगता है सब ठीक है
रिशते भी ठीक होंगे।
नेशनल जियोग्राफ़िक भी है,
ऐनिमल प्लेनेट भी है,
हिस्टरी पर हिटलर मौज़ूद है।
आश्वस्त हो जाता हूँ कि
सब ठीक है।
सारे चेनल आ रहे हैं,
सारे सेटेलाईट अपनी जगह पर हैं।
धरती अपनी ही धुरी पर घूम रही है
और होना भी चाहिये ।
माँ ने बहुत पूजा की थी
सोरों में,
ज़ब मैं पेट मैं था
दुनिया के इकलौते मंदिर में,
जहाँ वराह प्राण-प्रतिष्ठित हैं।
अभिमन्यु की तरह,
मैनें भी की होगी उसकी पूजा।
छींक आने से पहले, अब मुझे भरोसा हो गया है
कि रख देगा वराह धरती को सभाल कर कहीं।

एक लम्बी साँस लेता हूँ
और देखता हूँ चारों तरफ़,
बच्चे दूसरे पलंग पर लेटे हुए हैं
एक दूसरे से लिपटे,
पत्नी, पूरी दुनिया से बे खबर
छातियाँ उघेढ़े सो रही है,
आँखें बायें हाथ से ढके।

मैं दुनिया में पूरा का पूरा वापस आ गया हूँ
और लगने लगा है कि
दुनिया उस दिन धुरी से उतर जायगी
जिस दिन सभी चेनलों पर दिखाई देंगी
हरी हरी वादियां, चहचहाते परिन्दे,
लहलहाती नदियाँ, ज्वार भाटे के साथ हरहराता समुंद्र
चाँद, नीला आसमान, चमकता सूरज
और सिरे से नदारत होगा स्क्रीन से,
इंसान ।
**

नाखून, समय और रास्ता

बाजू-सीट पर बैठी पत्नी काट रही थी
नाखून, समय और रास्ता,
विंडस्क्रीन के सामने से भागती दुनिया से बेखबर।
( यह बात और है कि इनके अलावा और भी चीजें हैं
जो वह काटती रहती है, मसलन भाजी, कपड़े, बातें )

नाखून और समय
दोनों बढते रहते हैं
और दोनों का कटना लाज़मी है,
काटना मज़बूरी।
हैरत है कि दोनों ही कट जाते हैं।
रास्ता भी कट जाता हैं, बेचारा।
नाखून सभी के हैं, दुनियाँ भर में
जानवरों के भी
कौन काटता है, कौन नहीं
कहना मुश्किल है।
यह ज़रूर है कि आदमी काटता अवश्य है
भले ही दिखावे के लिये।

समय सर्वव्यापी है
एक ही समय में, कई-कई जगह
अच्छा और बुरा, अच्छों और बुरों से जुड़ा।
मसलन कि जिस समय
क्रूज़ मिसाईल लांच पेड से छूटी
उसके सामने नक्शा था, पूरे रास्ते का
हज़ारों किलोमीटर्स का।
कैसे छोड्ते जाना है हरे-भरे जंगल, नदियाँ, वादियाँ,
तेल के कुंऐ, शहर, सरहदें, इच्छाऐं।
नहीं भटकना है इच्छाओं में
उसे मालूम है
कैसे निकलना है दो पहाड़ों के बीच से
कैसे गुजरना है ऊंची इमारतों के बीच से
पहुंचना है बगदाद,
‘अर्जुन की आँख में सिर्फ़ चिड़िया की आँख’
मिसाईल की आँख में
बगदाद के मुहल्ले की एक तंग गली में एक अदना मकान।
मकान अनजान है तीर से,
और मिसाईल को नहीं मालूम
कि मकान, घर है,
कि घर के अन्दर है
एक इंसानी पीढियों का स्म्रति-इतिहास,
बरतन-भांडे, पुराने कपड़े, इबादत की चटाई, धुंधलाये चित्र,
एक चूल्हा,
एक बीमार माँ,
संयुक्त-राष्ट्र-प्रतिबन्धों की मार से मरे,
अपने बच्चों को कब्रिस्तान पहुंचाते-पहुंचाते
जो पड़ी है निढाल,
उसी समय घर लौट कर्,
अपनी सूनी आँखों में उनके मासूम बचपन समेटे।

मकान देखते ही मिसाईल के चेहरे पर एक मुस्कान थी
(अमूमन वैसे ही
जैसे कि होती है चेहरे पर, रोज़मर्रा मिलने वालों के
एक दुसरे से रास्ते में टकराने वालों की नज़र मिलने पर)
मकान को, जो यकीनन एक घर था,
मुस्कराने का समय ना मिला
बस एक ही समय में
मकान, घर और मिसाईल सभी ध्वस्त थे।
चिथड़ों में बंट चुकीं थीं,
मिसाईल……माँ………
रास्ता दोनों का लम्बा था, कट गया।
समय एक था,
रुक गया दोनों के लिये।
माँ की आँखों में यकीनन उस समय भी
हर एक बच्चे के साथ एक सपना ज़रूर था, जो
उन बच्चों को पूरा करते, वो कल्पना करती थी।

इन सब से बेखबर
नाखून बढते रहे दुनिया में,
लन्दन-वाशिन्गटन में भी
प्रजातन्त्र के भी
अंतरराष्ट्रीय समुदाय के भी
‘स्वतंत्र दुनिया’ के भी।
नाखून कुरेदती,
बैठी दुनिया
कब का भूल चुकी है समय कुरेदना।

बाजू-सीट पर बैठी पत्नी, माँ भी है
और उसके पास अब भी, कुछ हो न हो
संम्भावना ज़रूर है ।
विंडस्क्रीन के सामने से भागती दुनिया से है वो बाखबर
होते हुए भी बेखबर ।

6/16/2007

हम अपने तलुए चाटते लेटे थे
वैसे ही
जैसे चाटते थे
नन्हे-मुन्ने थे हम, जब
दौनों हाथों से पैरों के पंजे पकड़
अंगूठा मुँह में डाले ।
और दुनिया देख रही थी
हमें
स्नेह मिश्रित, संरक्षणीं नज़रों से,
अभिभूत,
हमारे होनहार होने की कल्पना कर ।

पालने में, पांव हमारे
हमें भी लगने लगा कि होनहार पूत के ही हैं।
पिछ्वाड़ा हमारा,
संस्क्रति, सभ्यता और इतिहास की चिंदियों के डायपर्स से ढंका था
नये नये सस्करणों में बनाने के कारखाने
हर राजनीतिक गली-कूचों में लग चुके थे,
जिनके ।

हम अपने आप ही लोरियाँ गाते-सुनते
ऊंघते-सोते,
छोटे-छोटे कुऐं बनाते
और उनमें टर्राते, सुखी थे
हर कुएं में भी अपने अपने गुट थे
हर गुट मानता था अपने को
सर्वश्रेष्ठ
और अक्सर किसी न किसी बात पर
दो चार सरकारी गाड़ियाँ, दफ़्तर फूंक डालते
और कर देते हलाक़ दस बारह ।
आस्था हर एक की इतनी भयानक कि
क्या प्रजातंत्र, क्या कानून, क्या धर्म
ऐसी की तेसी कराने में लगी होड़ ।
इंडिया गेट पर,
पहले गणतत्र दिवस से
करती रही,
कदम ताल,
गरीबी,
पूरी श्रद्धा और लगन के साथ
और होता गया
हर एक का ‘मेरा भारत, महान’
चिपक गईं यथा-तथा तिरंगी चिंदियाँ
कुछ लोगों की कारों पर
और कुछ के भूखे पेटों पर।

इस बीच
हमने अपने पुंसत्व की पुन: जांच कराने की सोची
लगा दिया देश की आला प्रयोगशालाओं को
पोखरन में निकला एक बड़ा लिंग
पार्वती की योनि से उठता हुआ
धन्य हुए हम , गद गद हुए
और बजरंगियों की एक पूरी पौध
ढोल-मंझीरों के साथ
टाईम मशीन में ठस पहुंच गई
उस समय में
रामायण लिखी नहीं गई थी, जब
और राम लला का जन्म हुआ ही चाहता था।
दंगे होंगे या नहीं
करोड़ों का सट्टा लग चुका था
हासिल कर ली थी महारथ
दोनों विधाओं में, हमनें ।

उन्होंने देखी, हमारी आँखों की चमक,
नये नये मोबाईल, रंगीन टी0 वी0 , कारें
पालने में ऊपर लटकते, झूलते देख
और देखा
दो नंम्बर के गांधी भरपूर
फ़िज़ा में
चेती दुनिया
कि बेचा जा सकता है अपना माल इनको
बस जरा सा और गाजर दिखाने की है ज़रुरत ।

एक दिन सुबह हमने पाया कि
हो गये हैं हम महान, उभरती शक्ति ।
आये, लम्बे हैट और टेल कोट पहने वे
आते ही कहने लगे
एक, दो, तीन
(जैसे कहते थे बच्चों को रेस दौड़ाते,
कभी हम)
छोड़ो अपने तलुए चाटना,
यह बचपनी आदत
तुम महान होने जा रहे हो
और हम बनाएंगे, तुम्हें महाशक्ति
आओ
चाटो तलुए, हमारे ।
शेष यात्रा एक नयी यात्रा की शुरुआत है