एक सुबह उठा जब
छाई हुई थी अजब सी खुमारी सारे बदन में
एक उबकाई सी आ रही थी
और उलटी की आशंका में
स्वत: स्फूर्त निकला थूक
भर रहा था मुँह में
समझ गया मैं कि
तमाम दाईओं से आँख बचाते पाल रहा था जिसे पेट में
पिछले साठ सालों से
नहीं रुक सकेगा अब और
ले कर ही मानेगा जन्म, अब ।
पुरानी बात है,
उस समय के सेपियाए चित्रों में
दिखाई दें शायद, आपको भी
गांधी टोपी और बटन-होल-लाल-गुलाब के साथ नेहरु
कभी भाखड़ा नंगल की रखते, आधारशिला,
कभी समर्पित करते,
बटन दबा कर भाखड़ा नंगल से छोड़ते,
नहर में पानी।
उस समय तक ऐलान हो चुका था
कि होंगे वही नये मंदिर, रिसर्जेंट इंडिया के ।
उसी समय की बात है
गंगा किनारे, दारागंज में,
एक तंग कमरे में,
चूल्हे की राख में की गई गर्म ईंट,
कपड़े में लपेट, अपने पेट पर बांध,
उम्र और कद में भाखड़ा नंगल से बड़ा,
एक कद्दावर शख़्स, नंगे बदन
तहमत बांधे, कुछ बुदबुदाते ओंठों से,
हो रहा था अपनी जराग्नि से, रु-ब-रु
कि दो पलक झपक लें कांत आँखें
हो गईं थीं जो क्लांत ।
वो कवि था, महाकवि था
पर नहीं था वो मंदिर,
रिसर्जेंट इंडिया का
हालांकि मालूम थी उसे,
वहां से आनंद भवन तक की दूरी
अंतहीन थी जो, उल्टी दिशा में ।
दूरी तो वो भी काफ़ी थी
राजनांदगाँव से दिल्ली तक
जीते जी तय कर पाना शायद संभव न था
खंडहरों के बीच से/
खंडहर होते शरीर से/
जिसमें आत्मा और आत्मा के सिवाय कुछ भी नहीं था,
परमात्मा भी नहीं ।
बीड़ी के धुएं सी कसैली रोशनी
भीतरी अंधेरों को रोशन करती
आह थी वह
और भाखड़ा नंगल से रिशता, उसका,
उतना ही था
जितना जुड़ा रहना था, उसका,
उसी जमीन से ।
वह भी कवि था, उतना ही
जितना,
गर्जन करता/ उफनता/ फुफकारता/
बाँध से छूट,
गिरता पानी ।
बचपन से बाहर होते, मुझ
और मुझसे बाहर होते सपने,
घुमड़ते बादल, रिमझिम बारिश, सर्द शाम और
पत्तों पर ओस की बूँद
धीमें से कहने लगे कुछ-कुछ, जब,
आने लगे आँखों के सामने
आंगन में चकहते
छोटे भाई बहन,
पहने,
रिश्तेदारों के बच्चों की उतरन ।
बाहर, राशन की लाईनें,
माँ-बाप के सपने,
मास्टर बाप की मज़बूरियाँ
और
महसूस होना
एक तुकान्त कविता में जकड़े जाना/
जकड़ते चले जाना ।
पता चल जाना,
काज़ की सी ज़िंदगी में
गुंजाइश नहीं है कवि की
रख दिया था उसी क्षण भीतर
संवेदनाओं के न्यूनतम तापमान पर
डीप-फ़्रीज़ में, भ्रूण
और भर दिया था, अंतराल
नून-तेल-लकड़ी से ।
लगता है
जिजीविषा, अजन्मे कवि की
मार रही है अब/ पेट में/ लातें ।
11/26/2007
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